गंगा पुत्र देवव्रत कैसे बने भीष्म पितामह?

दोस्तो महाभारत की कहानी में आपने कई वीर योद्धाओं के बारे में पढ़ा-सुना होगा। आज हम महाभारत के एक ऐसे महान योद्धा के बारे में बताने जा रहे हैं, जिसे इच्छा मृत्यु का वरदान प्राप्त था. जी हाँ दोस्तो हम बात कर रहे हैं भीष्म पितामह के बारे मैं. दरअसल भीष्म पितामह का नाम देवव्रत था. इस आर्टिकल में आप जानेंगे की गंगा पुत्र देवव्रत कैसे बने भीष्म पितामह? और उन्हें इच्छा मृत्यु का वरदान कैसे मिला?

Ganga Putra Bheeshma

दोस्तो, पौराणिक कथा के अनुसार, भीष्म पितामह हस्तिनापुर के महाराज शांतनु और देव नदी गंगा की आठवीं संतान थे। उनका मूल नाम देवव्रत था। गंगा ने जब शांतनु से विवाह किया तो उन्होंने अपने पति के सामने एक शर्त रखी, कि मैं जब भी कोई काम करूंगी, तो आप उसमें हस्तक्षेप नहीं करेंगे। जिस दिन आप हस्तक्षेप करेंगे मैं आपको छोड़ कर चली जाऊंगी। विवाह के बाद दोनों की सात संतान हुईं, जिसे गंगा ने एक एक करके नदी में प्रवाहित कर दिया। जब आठवीं संतान हुई तो शांतनु से रहा नहीं गया। शांतनु ने गंगा से कहा तुम कैसी मां हो, जो अपने सभी पुत्रों का वध कर रही हो। इतना सुनकर गंगा चली जाती हैं, लेकिन वे अपने पुत्र देवव्रत को जीवित रखती हैं।

गंगा के जाने के बाद राजा शांतनु ने दूसरा विवाह नहीं किया। बल्कि गंगा और अपने पुत्र के लौटने की प्रतीक्षा करते रहे। फिर 16 साल बाद एक दिन गंगा प्रकट हुईं, उनके साथ राजकुमार देवव्रत भी थे। देवव्रत को उनके पिता शांतनु को सौंपकर गंगा फिर से स्वर्गलोक को लौट गईं। एक दिन अपने पुत्र देवव्रत को लेकर राजा शांतनु शिकार पर गए। वहां शिकार करते-करते शांतनु अपने पड़ाव से काफी आगे निकल गए, और देवव्रत पड़ाव पर ही रुके हुए थे। शांतनु ने रास्ते में एक जगह यमुना किनारे नाव के साथ एक अत्यंत सुंदर स्त्री को देखा, जिसे देखकर वह मंत्रमुग्ध हो गए। उस स्त्री का नाम सत्यवती था, जो स्वर्ग की अप्सरा थीं, लेकिन एक शाप के कारण पृथ्वी पर जन्मीं थी। राजा शांतनु ने सत्यवती के सामने विवाह का प्रस्ताव रखा, तो उन्होंने शांतनु से कहा कि, विवाह के संबंध में आप मेरे पिता से बात करिए।

राजा शांतनु अपने और सत्यवती के विवाह का प्रस्ताव लेकर, सत्यवती के पिता से मिलने पहुंचे। उनके पिता ने शांतनु के सामने शर्त रख दी कि, वह अपनी पुत्री का विवाह शांतनु के साथ तभी कर सकते हैं, जब वह यह वचन दें की सत्यवती का पुत्र ही हस्तिनापुर का युवराज बनेगा। शांतनु यह वचन नहीं दे सकते थे, क्योंकि शांतनु अपने पुत्र देवव्रत को युवराज घोषित कर चुके थे। जब शांतनु इस शर्त को मानने के लिए तैयार नहीं हुए, तो सत्यवती के पिता ने इस विवाह से इंकार कर दिया। शांतनु ने अपने दिल की बात किसी को नहीं बताई और खोए-खोए रहने लगे। वह हर रोज यमुना के उसी किनारे पर जाते जहां सत्यवती बैठती थी. और फिर पेड़ के पीछे छिपकर सत्यवती को निहारते रहते। अपने पिता को उदास देखकर देवव्रत ने पता लगाया कि आखिर पिता की उदासी का कारण क्या है। देवव्रत ने शांतनु के सारथी से उनके बारे में जानकारी ली, और फिर सारथी को लेकर सत्यवती के घर पहुंचे। देवव्रत ने सत्यवती का हाथ उनके पिता से मांगा, ताकि वह सत्यवती का विवाह अपने पिता के साथ करा सकें।

देवव्रत ने जब सत्यवती के पिता से उनका हाथ मांगा तो उन्होंने वही बात दोहरा दी, जो उन्होंने राजा शांतनु से कही थी। इस पर देवव्रत ने कहा कि पिता आपको यह वचन नहीं दे सकते थे, क्योंकि वह मुझे युवराज घोषित कर चुके हैं। लेकिन युवराज होकर मैं आपको यह वचन दे सकता हूं, कि मैं इस राज्य की कमान अपने हाथ में नहीं लूंगा, और देवी सत्यवती का पुत्र ही युवराज बनेगा। इस पर सत्यवती के पिता ने कहा कि, युवराज तुम भी यह वचन अपनी तरफ से दे सकते हो, लेकिन तुम्हारी संतान की तरफ से यह वचन देने के अधिकारी नहीं हो, कि वह आगे चलकर सिंहासन पर अपना अधिकार नहीं जताएगी। तब भीष्म ने प्रतिज्ञा की कि वह आजीवन कुंवारे ही रहेंगे। न उनकी संतान होगी और न ही सिंहासन को लेकर कोई विवाद उपजेगा।

सत्यवती के पिता निषादराज के सामने आजीवन ब्रह्मचर्य का पालन करने की प्रतिज्ञा लेकर, देवव्रत सत्यवती को अपने साथ लेकर अपने पड़ाव पर लौट आए। जब राजा शांतनु को अपने पुत्र की इस प्रतिज्ञा के बारे में पता चला, तो वह बहुत व्यथित हुए। इस भीषण प्रतिज्ञा के कारण ही उन्होंने अपने बेटे को भीष्म कहा। फिर सत्यवती और शांतनु अपने पुत्र देवव्रत को भीष्म कहकर ही पुकारने लगे। तभी शांतनु ने अपने पुत्र भीष्म को यह वरदान दिया कि, वह जब तक चाहेंगे जीवित रहेंगे। उन पर मृत्यु का कोई वश नहीं होगा, और वह अपनी इच्छा से ही मृत्यु को प्राप्त होंगे। इस तरह गंगा और शांतनु के पुत्र देवव्रत से भीष्म कहलाए।

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Updated: January 24, 2024 — 2:42 pm

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