दोस्तो, पतित पावनी माता गंगा के विषय मैं तो आप सब जानते ही होंगे। आज की वीडिओ मैं हम आपको माता गंगा के अवतरण की कथा सुनाने जा रहे हैं कि, आखिर पाप नाशिनी माता गंगा का इस धरा पर कैसे अवतरण हुआ। हमें पूरा विश्वास है कि इस कथा को सुनने के बाद आपको ज्ञात हो पायेगा कि माँ गंगा का इस धरा पर होना कितना दुर्लभ है, और आपको अपने धर्म पर गर्व का अनुभव होगा। माँ गंगा के अवतरण की ये कथा सभी पापों का नाश करने वाली है इसलिए कथा को पूरा जरूर पढियेगा।
धरती पर क्यों आयीं गंगा जी?
प्राचीन काल में सगर नाम के राजा हुए जिनकी दो केशिनी तथा सुमति नामक रानियाँ थीं, सुमति के गर्भ से एक गर्भपिंड ने जन्म लिया जो फटकर 60 हजार पुत्रों में विभाजित हो गया। तथा केशिनी का एक पुत्र था। एक बार राजा सगर ने अश्वमेघ यज्ञ किया। यज्ञ भंग करने हेतु देवराज इन्द्र ने राजा द्वारा छोड़े गए घोड़े को चोरी कर कपिल मुनि के आश्रम में बाँध दिया। राजा ने यज्ञ के घोड़े की खोज में अपने साठ हज़ार पुत्रों को भेजा। घोड़े को खोजते-खोजते सभी पुत्र कपिल मुनि के आश्रम में पहुंच गए, वहां घोड़े को बंधा देख कपिल मुनि को चोर-पाखंडी कहने लगे और उनके लिए अपशब्द भी कहने लगे।
उस समय कपिल मुनि प्रभु ध्यान में मगन थे, राजा के पुत्रों के कारण कपिल मुनि की समाधि टूट गई तथा राजा के सारे पुत्र कपिल मुनि की क्रोधाग्नि में जलकर भस्म हो गए। जब बहुत समय होने पर भी किसी पुत्र की कोई सूचना नहीं मिली, तो पिता की आज्ञा पाकर अंशुमान अपने भाइयों को खोजता हुआ जब मुनि के आश्रम में पहुंचा। वहां उसे गरुड़जी मिले जिन्होंने सम्पूर्ण घटना स्वयं देखी और अंशुमान को उसके भाइयों के भस्म होने का सारा वृत्तांत कह सुनाया। गरुड़जी ने अंशुमान को यह भी बताया कि यदि इनकी मुक्ति चाहते हो तो गंगाजी को स्वर्ग से धरती पर लाना होगा।
परन्तु पहले अपने पिता का यज्ञ पूर्ण कराओ, तदोपरान्त देवी गंगा को पृथ्वी पर लाने का कार्य करो, देवी गंगा द्वारा ही तुम्हारे सभी भाईयों की आत्मा को मुक्ति मिल सकती है। अंशुमान ने घोड़े सहित यज्ञ मंडप में पहुंचकर राजा सगर से सब वृतांत कह सुनाया। महाराज सगर के बाद अंशुमान राजा बने, परंतु उन्हें अपने भाइयों के मुक्ति की चिन्ता बनी रही। कुछ समय के बाद अपने पुत्र दिलीप को राज्य का कार्यभार सौंपकर वे वन में चले गये तथा गंगाजी को स्वर्ग से पृथ्वी पर लाने के लिये तपस्या करने लगे और तपस्या में ही उनका शरीरान्त भी हो गया। महाराज दिलीप ने भी अपने पुत्र भगीरथ को राज्यभार देकर स्वयं पिता के मार्ग का अनुसरण किया। उनका भी तपस्या में ही शरीरान्त हुआ, परंतु वे भी गंगाजी को पृथ्वी पर न ला सके।
गंगा जी की उत्पत्ति कैसे हुई?
महाराज दिलीप के बाद भगीरथ ने ब्रह्माजी की घोर तपस्या की। अंत में तीन पीढ़ियों की इस तपस्या से प्रसन्न हो पितामह ब्रह्मा ने भगीरथ को दर्शन देकर वर माँगने को कहा। भगीरथ ने कहा – ‘ हे पितामह ! मेरे साठ हजार पूर्वज कपिल मुनि के शाप से भस्म हो गये हैं, उनकी मुक्ति के लिये आप गंगाजी को पृथ्वी पर भेजने की कृपा करें।‘ ब्रह्माजी ने कहा – ‘ मैं गंगा को पृथ्वीलोक पर भेज तो अवश्य दूँगा, पर उनके वेग को कौन रोकेगा, इसके लिये तुम्हें देवाधिदेव भगवान शंकर की आराधना करनी चाहिये। ‘
भगीरथ ने एक पैर पर खड़े होकर भगवान शंकर की आराधना शुरू कर दी। उनकी तपस्या से प्रसन्न होकर भगवान शिव ने गंगाजी को अपनी जटाओं में रोक लिया और एक छोटी धारा को पृथ्वी की ओर छोड़ दिया।
इस प्रकार गंगाजी पृथ्वी की ओर चलीं। अब आगे-आगे राजा भगीरथ और पीछे-पीछे गंगाजी थीं। मार्ग में जह्नु ऋषि का आश्रम पड़ा, गंगाजी उनके कमण्डलु, दण्ड आदि बहाते हुए जाने लगीं। यह देखकर जह्नु ऋषि ने उन्हें पी लिया।
माँ गंगा का नाम भागीरथी कैसे पड़ा?
कुछ दूर जाने पर भगीरथ ने पीछे मुड़कर देखा तो गंगाजी को न देख वे ऋषि के आश्रम पर आकर उनकी वंदना करने लगे। प्रसन्न हो ऋषि ने अपनी पुत्री बनाकर गंगाजी को दाहिने कान से निकाल दिया। इसलिये देवी गंगा ‘ जाह्नवी ‘ नाम से भी जानी जाती हैं। भगीरथ की तपस्या से अवतरित होने के कारण उन्हें ‘ भागीरथी ‘ भी कहा जाता है। इसके बाद भगवती गंगा मार्ग को शस्य-श्यामल करते हुए कपिल मुनि के आश्रम में पहुँचीं, जहाँ भगीरथ के साठ हजार पूर्वज भस्म की ढ़ेरी बने पड़े थे। भगीरथ ने पवित्र गंगा जल से अपने पूर्वजों का उद्धार किया और वे सभी गंगा जल के स्पर्श मात्र से दिव्य लोकों को चले गये। जिस दिन गंगा का पृथ्वी पर अवतरण हुआ उस दिन ज्येष्ठ महिने के शुक्ल पक्ष की दशमी तिथि थी जिसे आज भी प्रत्येक वर्ष गंगा दशहरा के नाम से मनाया जाता है।
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